Category: कविता

मानव जाति दुविधा मॅ है,पथ कौन सा उत्तम है

यह वह नहीं जानती

एक पथ है घृणा ,वैमनस्य,वर्ग संघर्ष ,पतन

आतंकवाद भय ,जातिवाद,बर्बरता का

धर्म के नाम पर दुहाई दी जाति है यहां ।

एक दूसरा पथ है

वह है मिलन,शांति ,एकता, प्यार की बांट का,

खिले हुए मनॉ का ,जीवन का ।

इस दूसरे पथ पर गति है ,निरंतरता है

सिथरता का दूर-दूर तक अंदेशा नहीं ।

जीवन का दूसरा नाम चलना है , यही सत्य है ।

विश्व एक स्वर से पुकारता है-

हमॅ युद्ध नहीं शांति चाहिए,

हमॅ वैर नहीं प्यार चाहिए,

हमॅ भय नहीं जीवन चाहिए,

हमॅ अंधकार नहीं  प्रकाश चाहिए

प्रकाश चाहिए ।

गति चाहिए अवरोध नहीं ,संशय नहीं

आत्मविश्वास चाहिए,

जीने का अधिकार चाहिए

उठो संशय के रेत के कगारॉ को तोड डालो ।

बनाओ एक पुख्ता नींव

जो प्रेम व शांति की हो

विश्व प्रेम की हो

एकता  की हो

एकता की हो ।…

मां तुझे प्रणाम कैसे करूं  ?

गुलाब सा चेहरा जो कांटॉ से घिरे रहने पर भी हंसता रहता है,

पर मन्द-मन्द मुस्कान की महक चहुं और बिखरती रहती है ।

पर आज तेरे चित्र पर फूल भी नहीं चढाना चाहती ,

क्यॉकि फूल मुरझा जाते हैं ,सुगंध हवा मॅ विलीन हो जाती है,

पर मां सदा रहती है ।

फिर क्या याद करूं  तुझे आज शब्दॉ से ।

कहते हैं शब्द कालातीत होते हैं ,

शब्द मरते नहीं ,शाश्वत हैं ।

ईश्वर के बाद तू ही है-अनन्त,असीम ।

हर किसी को ममता के आंचल मॅ छिपाने वाली

पर शब्दॉ से कैसे करूं तुझे प्रणाम,

क्यॉकि मैं कोई कालजयी कवि नहीं ।

मेरे शब्द मेरी सांसॉ के साथ विलीन हो जायेंगे,

पर मां तो रहेगी चिरकाल तक ।

मां तू तू है–अनुपम श्रद्धेय ।

एक ही इच्छा है-

मेरी अन्तिम बेला मॅ ,मेरी उखडती सांसॉ मॅ

मेरे उखडते स्वर मॅ

ईश्वर के नाम के साथ तेरा भी नाम हो ।

ओ मेरी सुख-दुख की संगिनी मां

तुझे प्रणाम शत-शत प्रणाम…

इस कमरे की खिडकी से

यह हिलता पेड नजर आता है ।

दूर कहीं पुलिस की

कार का सायरन बजता है,

साथ ही  सान्वी की आवाज-

cop आया cop आया ।

दोपहर का समय है,

चारॉ और सन्नाटा छाया है।

हवा अत्यंत तेज है,

घर की दिवारॅ,पलंग ,

सब हिल-हिल उठते हैं।

ऐसा लगता है अचानक

भूकंप का झटका लगा है,

पर फिर हंसी आती है।

यहां भूकम्प आने पर भी

सब हिल-डुल कर

फिर टिक जाते हैं।

यह लकडी के घर ,

जहां हर आहट पर

आवाज गूंज उठती है,

जहां हर पल अकेला है।

यहां कोई आंसू पॉछने वाला नहीं ।

उल्टी हथेली से आंसू पॉछ,

अपने गम खुद पी,

व्यकित हर पल अकेला ही आगे बढता चलता है

बढता चलता है।…

मै स्टाफ-रुम के कोने की गोल मेज हूं,

वर्षो से मुझे पेन्ट नही किया गया है,

पर इस वर्ष मेरा उद्धार हुआ है।

मै आज आपबीती नही सुना रही

यह मेरी गाथा है जो सुना रही हूं।

मै उत्तरी ध्रुव का ज्वालामुखी नहीं,

जो ऊपर से बर्फ से ढका हैऔर भीतर

से है लावा से भरपूर

मै तो पृथ्वी हूं,

पृथ्वी जो सब सहती है,

पृथ्वी जो सब सुनती है,

खुशियां बांटती है।

मैने भी अपने आसपास बैठने वालों के आंसुऑ के सैलाब पिए हैं,

हंसी व खुशी की किलकारियां भी सुनी हैं।

मुझ पर चाय के दौर बहुत चलते हैं

साथ मॅ फटाफट खाने के डिब्बे भी खुलते हैं,

समॉसॉ की प्लॅटॅ भी अक्सर खाली होती हैं,

पर आज तक किसी ने मुझे नहीं पूछा ।

जब तरह-तरह के व्यंजनॉ की

महक से मेरे अन्दर की भूख जागती है।

अक्सर जब मिठाई के डिब्बे खुलते हैं,

जब सुन्दर साडियॉ की तहें मेरे पास खोल कर

गुपचुप तरीकॉ से दिखाई जाती हैं,

तो मेरे भीतर भी ललक जागती है।

काश मैं भी इनमॅ से एक होती,

पर क्या करुं मैं तो एक गोल मेज हूं।

मैं अपने आस-पास बैठने वालॉ के

चेहरॉ को अच्छी तरह पहचानती हूं,

उनका इतिहास जानती हूं,

इनकी व्यथा बांटती हूं।

इनके बच्चॉ को मैंने बचपन से बडे होने तक जाना है।

उनके कोमल चेहरॉ को मैं जानती हूं,

पर आज मैं अपनी व्यथा के पर्दे खोल रहीं…