न्यूयार्क और ‘फाल सीजन’ (भाग १)

कितनी बार न्यूयार्क की गगनचुम्बी इमारतॉ को खासकर न्यूयार्क टाइम्स की नई बनी इमारत को गर्दन पीछे की और झुका कर देखा।भला इतनी ऊंची इमारतॅ आंधी ,तूफान ,पानी और भूचाल के झॉके कैसे सहती हॉगी।’statue of liberty’ से लौटते हुए ‘एलिस आइलॅड ‘पर डूबते सूरजके रंगॉ में सालॉ पहले दूर देश से आए यात्रियॉ की नावॅ देख रही थी ।यहां की मिट्टी ने उन्हॅ जबतकर लिया । भले यातना के दौर से गुजरने के बाद आश्रय मिला हो लेकिन जो नितान्त पीछे छूट गये उनका अकेलापन क्या कम यातनाप्रद रहा होगा? भीतर भाव उमड्ने लगे ,एक प्रशन मथने लगा-इस देशनिकाले और अलग पङ्ने के पीछे कौन? क्या हमारी नीतियां नहीं,हमारी सोच नहीं?

दूसरी सभ्यता मॅ पूरी तरह खुल नहीं पाते हम पर फिर भी अपने ढंग से जीने को आजाद हैं।यही चीज रोकती है इधर। कोई किसी के फटे मॅ पैर नहीं डालता। सब अपनी -अपनी जिन्दगी जीते हैं।भारत की भांति दूसरॉ की जिन्दगी मॅ दखल नहीं देते। यहां एक प्रसिद्घ कहावत है’टू इच हिज आन’। यह एक ऐसा

देश है जहां बच्चे अपने मां-बाप की शिकायत स्कूल तथा अन्य संस्थाऑं मॅ भी कर सकते हैं और उन्हॅ जेल की हवा खिला सकते हैं।चुप रहकर मां-बाप की मारपीट नहीं सहगॅ।

पी.एच.डी. कर कोई यहां रेस्तरां खोल कर बैठा है हिन्दुस्तानी खाने का,पर यहां कोई नहीं कहता कि एक खानदानी पुरूष या स्त्री बावर्ची/बावर्चिन बन गया/गई।यहां वह सिर्फ एक व्यक्ति है,एक सफल व्यक्ति-अपने काम मॅ कुशल अप्ने व्यवसाय मॅ कुशल।यही आत्मिक सुख शांति उन्हॅ इस देश से जोडे हुए है। एक बार जो दुनिया के इस हिस्से मॅ आता है क्या लौट कर जाता है? अपनॉ से जुडी डोर केवल अपनी और खींचती है।यहां देश से आकर अमरीकी बनते हैं पर भीतर से कट्टरपंथी हिन्दुस्तानी।पुरूष की हर खता माफ पर स्त्री की चौकन्नी नजरॉ से थानेदारी ।लडकी के बडे होते ही अपनी बिरादरी मॅ रिशते ढूंढ्ने लगते हैं,चाहे वह मिसफिट ही क्यॉ न हो,क्यॉकि मन मॅ कहीं डर बैठा है-किसी अमरीकी से शादी से पहले ही न जुड जाए। चाहे अपने देश मॅ अन्तर्जातिय ,अन्तराष्ट्रीय विवाह खूब प्रचलित हो गये हैं पर यहां जडॉ को मजबूती से पकड के बैठे हैं।बच्चॉ पर बुरा असर पडत है,क्यॉकि घर मॅ देशी बाहर विदेशी कल्चर एक पीढी ने निभा लिया अगली नहीं निभा पा रही।

पिछले वर्ष जब भारत लौट कर गई थी तो सोचा था कि ‘east coast’ का अमेरिका सारा घूम लिया ,अब अगर आई तो west coast’ जाऊंगी पर विधाता ने कुछ और सोचा था।पति की आकस्मिक निधन ने भावनात्मक स्तर पर मुझे बिल्कुल तोड दिया ।अपनॉ ने बहुत सहारा दिया ।नीति (बडी बेटी) के बार-बार के अनुरोध ने मुझे एक बार फिर अमेरिका यात्रा के लिए मजबूर कर दिया पर इस बार मन मॅ कुछ उछाह नहीं था।केवल एक डोर थी अपनी नन्हीं नातिन सान्वी की,उसके साथ समय बिताने की चाह जो मुझे खींच कर फिर न्यू जर्सी ले आई।यह अमेरिका का ‘गार्डन स्टेट’ है।यहां भारतीय मूल के अनेक डाक्टर इंजीयर व्यवसायी रहते हैं। दिमाग है ,श्रम है,लगन है पर इतना नहीं कि देश कीयाद नहीं आती।अपना वतन अपनी मां की तरह होता है।मां अच्छी हो या बुरी उसे हम बदल नहीं सकते हैं तो देश को कैसे बदल सकते हैं, उसकी मिट्टी की सुगन्ध मन मॅ बसी रहती है।अपने घर से हजारॉ मील दूर पर अपने लोग ,अपनी बोली अपना खान-पान लगता है अपने देश मॅ अपने घर मॅ ही हूं। एक आत्मीय घेरे का सुकून महसूस होने लगता है।                                                  (अभी शेष है—)

Dr. Kiran Nanda

Dr. Kiran Nanda

Dr. Kiran Nanda did her graduation and post-graduation from Delhi university. She did her Ph.d. on 'sant kavya mai vidroh ka swar' from Delhi university. She has authored a number of books and published many travelogues.

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