निशब्द हूँ

सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला ‘की बहुप्रसिद्ध कविता ‘वह तोड़ती पत्थर ‘ की कुछ पंक्तियाँ स्मरण-आ रही हैं –
गर्मियों के दिन/दिवस का तमतमाता रूप /रूई ज्यों जलती हुई भू /गर्द चिनगी छा गयी /देखा मुझे उस दृष्टि से /जो मार खा रोई नहीं
निराला जी की इस कविता की चर्चा प्रासंगिक है |जीवन की तीन मूलभूत आवश्यकताऐं हैं -रोटी,कपड़ा और मकान |घर से सैकड़ों मील घर-परिवार से दूर विभिन्न राज्यों में रोजी रोटी की खोज में आए असंख्य प्रवासी जहां काम मिलता है वहीं उनका डेरा हो जाता है |मोबाईल सुविधा हो जाने से घर से नाता भी जुड़ा रहता है |पर इस आपदा के समय न दो रोटी का जुगाड़ है न हाथ में पैसा न सिर पर छत न कहीं से कोई आशवासन ||हम में से कुछ ने खाना बाँटा फिर स्वयमं को अपने घरों में सुरक्षित कर लिया -हमारे पास भोजन भी है और छत भी |वे दूसरे थे अकेले इस आपदा की घड़ी में | वे चल पड़े पैदल अपना सामान अपने सिरों पर लाद परवाह नहीं की कि सैकड़ों मील दूर घर कैसे पहुंचेंगे |अनेक अपने परिवारों के साथ में -बिलखते बच्चे ,पत्नी-लकड़ी की छोटी हाथ से खींचती गाड़ी में सोए बच्चे और सामान के साथ ,सिर पर गठरी लादे बूढ़े माता -पिता ,पिता को साइकिल पर बैठा कर ले जाने वाली बेटियाँ |वे चलते रहे चलते रहे कुछ थक कर सड़क पर सोये कुछ रेल की पटरी पर सो जान गंवा बैठे,तो कुछ दुर्घटना में |इस यात्रा में कितनों ने घर पहुचने से पहले अपनों को खो दिया |इन प्रवासियों की सूनी आँखों की पीड़ा मर्मांतक है दिल को छू जाने वाली झकझोरने वाली वही जो निराला की कविता की पत्थर तोड़ने वाली मजदूरिन की आँखों में है | क्यों हो गए संवेदनहीन क्यों सरकार और समाज ने उन्हें विस्मृत कर दिया -जिनके अथक परिश्रम से इमारतें खड़ी हैं ,उद्योग धंधे चल रहे हैं आर्थिक ढांचे की जो पुख्ता नींव हैं | | क्यों आखिर क्यों ?

Dr. Kiran Nanda

Dr. Kiran Nanda

Dr. Kiran Nanda did her graduation and post-graduation from Delhi university. She did her Ph.d. on 'sant kavya mai vidroh ka swar' from Delhi university. She has authored a number of books and published many travelogues.

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